ईश्वर निराकार है या साकार? सतगुरु क्या है? सतगुरु और निराकार मे क्या सम्बन्ध है?
सन्तो- महापुरूषो जी धन निरंकार जी और जो धन निरंकार को नही जानते हैं, उनको मेरा हाथ जोड़कर नमस्कार स्वीकार हो।
आज हम बात करेंगे कि ईश्वर निराकार रूप है या साकार रूप है।
कहानी शुरु होती है तब, जब रामावतार के समय माता पार्वती महादेव से पूछती है कि- जो गुन सहित सगुन सोई कैसे।
अर्थात जो बिना आकार के है वो साकार कैसे हो सकते हैं।
तब महादेव जी कहते हैं कि-
जो गुन रहित सगुन सोई कैसे।
जलु हिम उपल विलग नहीं जैसे।
अर्थात जैसे भाप भी पानी है, और बर्फ भी पानी है। इन दोनो मे भेद नही है फिर सगुण और निरगुन मे कैसा भेद । अर्थात निर्गुण और सगुण मे कोई भेद नही होता है।
निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी महाराज जी कहते थे--
""जिसकी भक्ति जिसकी पूजा उसका ज्ञान जरूरी है।
कहे 'हरदेव' की पहले ईश्वर की पहचान जरुरी है।""
तात्पर्य यह कि ईश्वर को साकार रूप मे देखने के लिये एक अलौकिक उस दिव्य दृष्टि की आवश्यकता होती है जो केवल सतगुरु की कृपा से ही प्राप्त होती है। हम बहुत ही भाग्यशाली हैं कि ईश्वर निराकार और साकार दोनो रूपों मे हमारे अंग संग रहते है।
तो सन्तो यहां सतगुरु शरीर रूप मे निराकार प्रभु परमात्मा का ही स्वरूप है।
अतः इसके दोनो ही रूप है और दोनो रूपो मे इसकी पहचान जरूरी है। अतः जब हम सतगुरु को उसके निराकार रूप मे याद करते हैं तो सतगुरु और निराकार मे कोई भेद नही रखते हैं और एक के प्रति की जाने वाली प्रार्थना दुसरे तक अपने आप पहुच जाती है।
जब हम कभी भी साकार सतगुरु से मिलते हैं तो वो निराकार ईश्वर के प्रतिनिधि ही होते है।
वास्तव मे निराकार ईश्वर ही सतगुरु के घट मे बैठकर कार्य करता है। अतः यहां सतगुरु शरीर भे रहते हुऐ भी केवल शरीर का नाम नहीं है, अन्य मानव की भाँति साधारण मानव नही है।
सतगुरु संसार के सभी जाति, धर्म, नस्ल, भाषा और संस्कृति आदि से ऊपर होता है सभी बन्धनो से मुक्त होता है।
" सतगुरु है इस जग का दाता, जो चाहे कर सकता है।
पत्थर भी जो चरण को छूले, भव सागर तर सकता है।"
यह न जन्मता है न मरता है। बल्कि नये नये घट मे आकर हमे अपनी कृपा का पात्र बनाता है।
नया चोला या नया घट कोनसा है इसका चयन सतगुरु स्वयं करते हैं। आज सतगुरु ने अपनी रहमतो, अपनी बख्शीशो से यह एहसास करा दिया है कि ---
"सतगुरु देह का नाम नही, सतगुरु होता ज्ञान है।
सतगुरु को देह समझना भूल है, अज्ञान है।"
हम प्रकृति के हर रूप मे इसका ही दर्शन करते हैं। सागर की उछलती लहरो मे कौन हंसता है, रिमझिम बरसात किसके कारण होती है, शीतल हवा के झोकों के रूप मे किसका सपरष होता है, फूलो मे किसकी सुगन्ध होती है। यही तो परमात्मा का विश्व रूप दर्शन है यह कठिन तो हो सकता है पर उस दिसा मे जाना तो पड़ेगा। सगुण से निरगुन की ओर जाना ही तो अध्यात्म है। और सतगुरु को ईश्वर के तुल्य मानकर पूजना ही साकार भक्ति या सगुण भक्ति है।
अतः इस प्रकार साकार सतगुरु और निराकार मे कोई भेद नही होता है।
सभी वेदो और ग्रंथो ने भी यह स्वीकार किया है।
कृपा करो सन्तो भक्तजनों हम भी ये समझ पाये कि साकार और निराकार मे कोई अन्तर नहीं होता है।
आज समय की सतगुरु माता सुदिक्षा हरदेव सिंह जी हैं, जो ज्ञानरूपी रोशनी कर रही हैं और जिनको हम स्वयं निरंकार या निराकार रूप मानकर पूजते हैं।
साध संगत जी धन निरंकार जी।
जो ग़लती हुई तो बक्स लेना जी और अगर अच्छी लगी तो सभी सन्तो महापुरूषो के ग्रुप मे सेयर करदो जिससे ज्यादा से ज्यादा सन्त देख सके।
हमेशा मुसकुराते रहिये, गुलाब की भाँति खिलते रहिये।
धनयवाद जी।
आज हम बात करेंगे कि ईश्वर निराकार रूप है या साकार रूप है।
कहानी शुरु होती है तब, जब रामावतार के समय माता पार्वती महादेव से पूछती है कि- जो गुन सहित सगुन सोई कैसे।
अर्थात जो बिना आकार के है वो साकार कैसे हो सकते हैं।
तब महादेव जी कहते हैं कि-
जो गुन रहित सगुन सोई कैसे।
जलु हिम उपल विलग नहीं जैसे।
अर्थात जैसे भाप भी पानी है, और बर्फ भी पानी है। इन दोनो मे भेद नही है फिर सगुण और निरगुन मे कैसा भेद । अर्थात निर्गुण और सगुण मे कोई भेद नही होता है।
निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी महाराज जी कहते थे--
""जिसकी भक्ति जिसकी पूजा उसका ज्ञान जरूरी है।
कहे 'हरदेव' की पहले ईश्वर की पहचान जरुरी है।""
तात्पर्य यह कि ईश्वर को साकार रूप मे देखने के लिये एक अलौकिक उस दिव्य दृष्टि की आवश्यकता होती है जो केवल सतगुरु की कृपा से ही प्राप्त होती है। हम बहुत ही भाग्यशाली हैं कि ईश्वर निराकार और साकार दोनो रूपों मे हमारे अंग संग रहते है।
अतः इसके दोनो ही रूप है और दोनो रूपो मे इसकी पहचान जरूरी है। अतः जब हम सतगुरु को उसके निराकार रूप मे याद करते हैं तो सतगुरु और निराकार मे कोई भेद नही रखते हैं और एक के प्रति की जाने वाली प्रार्थना दुसरे तक अपने आप पहुच जाती है।
जब हम कभी भी साकार सतगुरु से मिलते हैं तो वो निराकार ईश्वर के प्रतिनिधि ही होते है।
वास्तव मे निराकार ईश्वर ही सतगुरु के घट मे बैठकर कार्य करता है। अतः यहां सतगुरु शरीर भे रहते हुऐ भी केवल शरीर का नाम नहीं है, अन्य मानव की भाँति साधारण मानव नही है।
सतगुरु संसार के सभी जाति, धर्म, नस्ल, भाषा और संस्कृति आदि से ऊपर होता है सभी बन्धनो से मुक्त होता है।
" सतगुरु है इस जग का दाता, जो चाहे कर सकता है।
पत्थर भी जो चरण को छूले, भव सागर तर सकता है।"
यह न जन्मता है न मरता है। बल्कि नये नये घट मे आकर हमे अपनी कृपा का पात्र बनाता है।
नया चोला या नया घट कोनसा है इसका चयन सतगुरु स्वयं करते हैं। आज सतगुरु ने अपनी रहमतो, अपनी बख्शीशो से यह एहसास करा दिया है कि ---
"सतगुरु देह का नाम नही, सतगुरु होता ज्ञान है।
सतगुरु को देह समझना भूल है, अज्ञान है।"
हम प्रकृति के हर रूप मे इसका ही दर्शन करते हैं। सागर की उछलती लहरो मे कौन हंसता है, रिमझिम बरसात किसके कारण होती है, शीतल हवा के झोकों के रूप मे किसका सपरष होता है, फूलो मे किसकी सुगन्ध होती है। यही तो परमात्मा का विश्व रूप दर्शन है यह कठिन तो हो सकता है पर उस दिसा मे जाना तो पड़ेगा। सगुण से निरगुन की ओर जाना ही तो अध्यात्म है। और सतगुरु को ईश्वर के तुल्य मानकर पूजना ही साकार भक्ति या सगुण भक्ति है।
अतः इस प्रकार साकार सतगुरु और निराकार मे कोई भेद नही होता है।
सभी वेदो और ग्रंथो ने भी यह स्वीकार किया है।
कृपा करो सन्तो भक्तजनों हम भी ये समझ पाये कि साकार और निराकार मे कोई अन्तर नहीं होता है।
आज समय की सतगुरु माता सुदिक्षा हरदेव सिंह जी हैं, जो ज्ञानरूपी रोशनी कर रही हैं और जिनको हम स्वयं निरंकार या निराकार रूप मानकर पूजते हैं।
साध संगत जी धन निरंकार जी।
जो ग़लती हुई तो बक्स लेना जी और अगर अच्छी लगी तो सभी सन्तो महापुरूषो के ग्रुप मे सेयर करदो जिससे ज्यादा से ज्यादा सन्त देख सके।
हमेशा मुसकुराते रहिये, गुलाब की भाँति खिलते रहिये।
धनयवाद जी।
Dhan nirankar ji .
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