सेवा सतगुरु की। सतगुरु की सेवा मे कितना आनन्द होता है।

सन्तो महापुरूषो जी धन निरंकार जी और जो धन निरंकार को नही जानते हैं उनको मेरा हाथ जोड़कर नमस्कार स्वीकार हो।

         सतगुरु माता सुदिक्षाहरदेव सिंह जी महाराज जी

आज हम बात करेंगे की सेवा क्या होती है। सतगुरु को ये सेवा क्यो भाती है, क्यो एक सेवक भाग-भागकर सेवा करता है।
आज सुबह की ही बात है, जब मैं घर से निकला तो मुझे कही जाना था। कुछ दुर तक तो बस से गया फिर बस से जैसे हि उतरा तो गंतव्य तक पहुंचने के लिये ओटो रिक्सा की जरूरत पड़ती है पर सुबह मे कम रिक्सा होने की वजह से मै 5-7 किमी जाने के लिये पैदल ही चल पड़ा और शोचा कि आगे से शायद कोई सवारी मिल जाये।
जैसे हि कुछ दूर चला तो पीछे से किसी बाइक वाले  ने आवाज दी कि कहाँ जाना है मैने उसको जगह का नाम बताया कि मुझे वहां तक जाना है तो वो बोला कि मै भी उधर से निकलूंगा आपको छोड़ दूंगा।
मैने कहा अच्छी बात है चलो।
दरअसल वो व्यक्ति अपने लड़के को पेपर देने के लिये छोड़कर आ रहा था । आज 10th class का पेपर था। तो उसने मुझे बाइक पर बैठा लिया और चल पड़ा। आश्चर्य तो तब हुआ जब वो बन्दा जहाँ उसको जाना था वहां न रुक कर लगभग 1.5 km आगे मुझे छोड़ने के लिये आया।
फिर मन मे विचार आया की कोई साधारण व्यक्ति भी इतना परोपकारी कैसे हो सकता है। जबकि आज कल कोई अनजान आदमी के लियें रूकता तक भी नही है। वो कोई रिश्तेदार नहीं था, कोई जानने वाला नहीं था पर उसने शायद मुझे मेरे स्थान तक पहुंचाने को अपनी सेवा समझा हो। उसे लगा कि चलो सुबह-सुबह कोई पुण्य का कार्य कर लिया जाये । हो सकता उसको लगा हो कि शायद यही टाईम अल्लाह की दरगाह मे लिखा जाये।

तो ये था उसका निष्काम कार्य जो मेरे लिये या शायद कितने ही लोगो के लिये किया हो। पर इस सेवा का फल शायद हमे मिले या ना मिले। कोई पता नहीं।
पर एक सेवा है जिसके फल की व्यक्ति कामना भी नहीं करता है और उसका फल भी कई गुना मिलता है। ऐसा-ऐसा फल मिलता है जिसके बारे मे मानव शोच भी नही सकता।
तो वो  सेवा है- सतगुरु की सेवा।
तो सेवा वास्तव मे मतलब दिव्य, निर्मल आलौकिक कर्म है।
ऐसा कर्म जो स्वार्थ रहित हो, परोपकार से युक्त हो।
सेवा का मतलब है दूसरो का भला करना यदि भला शब्द को बार-बार दोहराये तो हमे लाभ प्राप्त होगा। यानि भला का उल्टा लाभ। यानि अगर हम लाभ लेना चाहते हैं तो हमे सबका भला करना पड़ेग। वस यही है सेवा।

सेवा करते समय हमे अहंकार से बचना होगा। यदि सेवा करते समय मन ये अहंकार आ गया कि मै तो सतगुरु की बहुत सेवा करता हूँ, सतगुरु हमेशा मुझसे ही सेवा के लिये कहते हैं, तो सन्तो वो सेवा किसी काम की नही रहती है। जिसके लिये कहा भी गया है कि -
तन मन धन तिनना से ऊँची वो सेवा कहलाती।
जो होवे निष्काम निरीक्षित, वो सतगुरु के मन भाती है ।।
तो सन्तो महापुरूषो जी गुरु के दर पे की गई सेवा महान होती है।

इसके दर से उठाया गया तिनका भी हमारे लेखे मे लिखा जाता है।कभी- कभी सेवा परोपकार करके हम कर्ता को भूल जाते हैं। हमे नही पता चल पाता कि - तू कर्ता है जगत का तू सबका आधार।
अर्थात करने वाला तो यही है हम तो वस इसके बनाये हुऐ पुतले हैं जो ये चाहता है। वही होता है।

"तू जो चाहता है होता वही है, दाता तेरा किया सब सही है।" और हमे लगता है कि हमने किया है।
सेवा का मतलब परमात्मा को दिल मे बसा कर  सेवा करना, तब ही अच्छे से सेवा हो पायेगी। वरना अहंकार हम पे हावी हो जाता है।
स्वार्थ से मुक्त करती है सेवा। जीवन मे खुशियाँ लाती है सेवा। मन का अभिमान मिटाती है सेवा। सेवा ही प्रभु प्रेम की दिव्य अनुभुति है।

सेवा ही तन मन धन निरंकार है। सेवा ही सतगुरु है।
"हे समरथ परमात्मा हे निर्गुन निरंकार।
तू कर्ता है जगत का तू सबका आधार।"
इस प्रकार सेवा का जो आधार है वो निरंकार प्रभु परमात्मा है। तो सेवा का बहुत महत्व है जीवन मे। हमेशा दूसरो का भला मांगते हुऐ सेवा करते चले जाये।
धन निरंकार जी।
धन्यवाद।


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